"ये भईया उठऽ " "उऽ" "उठऽ माई बोलावत बा, परसादी खाए के" "चलऽ आवत हईं" "सात बज गइल हव माई अबहि ले पानी नाहीं पियले हव, चलऽ जब तू खईबऽ तब न माई पानी पी" हम उठ कर चल दिए जैसे माँ के पास पहुँचे आँख मलते हुए... वइसे माँ ने कहा "बाबू आ गइलऽ आव परसादी खा ल" "माई ब्रश कई के आवत हईं" "बाबू परसादी खइले मे बरश कइले हव या न इ ना देखल जाला" तब तक अचानक नींद खुली मोबाइल में देखा 7:30 हो रहा था,,,,, तब माँ को फ़ोन लगाया.. माँ से बस तो टूक ही बात हो पाई "हैलो" "माई नमस्ते" "खुश रह बेटा तोहार सब मनोकामना पूरा होखे" "का होत बा" "बस अब पानी पियें जात हईं, देख तवले तोहार फोन आईये गइल" "ठीक बा माई पानी पी ल फिर हम बाद में बात करत हईं" बस इतना बात करके फोन काट दिया.. फिर मन मे वही उठापठक चालू आखिर हम शहर आने को क्यो मजबूर होते है ? गाँव जो हमे संस्कार सिखाता है वही शहर उस संस्कार से हमे कहि दूर ले जाता है एक तरह से हमारे संस्कार को नष्ट भी कर रहा है. ...