और सुबह नींद खुली घड़ी में आठ बजे रहे थे... पहले मोबाइल की तरफ नजर गई तारीख आज 22 थी दिन रविवार और जनता कर्फ्यू का आह्वान । मोबाइल के नोटिफिकेशन चेक कर रहा था लगभग कईयों के मैसेज पढ़े थे कि आज घर में ही रहे घर से बाहर बिल्कुल ही ना निकले मैंने मोबाइल को दूर किया बिस्तर से उठकर बाहर बालकनी की तरफ निकल आया सामने गलियां एकदम सुनी थी बिल्कुल खामोश जो लखनऊ की गलियों की अदावत थी ही नहीं ...चिड़ियों की चहचहाने की आवाज कानों तक साफ़ आज पहुंच रही थी गाड़ियों की आवाजाही थम सी गई थी। गली में किसी चीज का आना नहीं हुआ कोई भी व्यक्ति बाहर नहीं निकला। एक अकेली पत्ती गली के छोर पर खड़े अमरूद के वृक्ष से अलग हुई और उस खामोशी ठहराव में गिर गई । जैसे एक सांकेतिक गिरना था संकेत था वस्तुओं में निहित एक शक्ति का जिसे आपने अनदेखा कर दिया एक छोर से दूसरे छोर तक सिर्फ दिख रही थी तो सिर्फ खामोशी और सुनाई पड़ रही थी तो हवा की सरसराहट और चिड़ियों की चहचहाहट। ______________ यक़ीन मानिए कभी कभी ऐसा कर्फ्यू भी जरूरी है .. आज शहर में रहते हुए पहली बार अनुभूति हुई कि शहर में भी लोग इस तरह रहते है ... जहाँ दिन ...