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Showing posts from January, 2020

खिचड़ी और बचपन

"ए बाबू जाऽ त तनि हईं चाउर भुजा लावऽ" "ए माईं पहिले हमके गेहूं, अउर चना अगल से देबु भुजावे के तबे जाइबऽ हम" "भूजवा भूजइबऽ नाहीं त धोंधा कइसे खइबऽ, देखऽ खिचड़ी आ गइलऽ बा..." "नाहीं पहिले हमके अलगे से भुजावे के चना अउर गेहूं देबू तबे जाइब" "ठीक बा, पहिले चउरा भुजा लाव फिर अपना खातिर गेहूं अउर चना भुजा लिहऽ " अभी स्कूल से पढ़ कर आ रहे बस्ते को जैसे मैंने फेंका माँ का पहला फ़रमान यही था.... उस दौर में और आज के दौर में बहुत बदलाव आ गये है  खिचड़ी के कई दिनों पहले से ही धान को उबालने का काम शुरू हो जाता था लगभग हर घर की यही कहानी थी। उबालकर भुजिया चावल बनता था जिससे भूजा(लाई) बनता है। अब दौर बदल चुका है अब सब कुछ रेडीमेड उसकी जगह ले लिया है ... उ का है कि लोगो के पास वक़्त बड़ा कम है मानों कथाकथित .... हर गाँव मे एकाक चूल्हा जरूर होता था जहाँ लोग बड़े चाव से भुजिया चावल को भुजाने जाते थे.... और उस दौर में हम लोग तो ओर ज़्यादा उत्सुक रहते थे कि इसी बहाने हमे और भी काम नही करने पड़ेंगे.... स्कूल से आने के बाद एक ही काम सिर्फ.... कभी कभी तो उ...