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खिचड़ी और बचपन

"ए बाबू जाऽ त तनि हईं चाउर भुजा लावऽ"
"ए माईं पहिले हमके गेहूं, अउर चना अगल से देबु भुजावे के तबे जाइबऽ हम"
"भूजवा भूजइबऽ नाहीं त धोंधा कइसे खइबऽ, देखऽ खिचड़ी आ गइलऽ बा..."
"नाहीं पहिले हमके अलगे से भुजावे के चना अउर गेहूं देबू तबे जाइब"
"ठीक बा, पहिले चउरा भुजा लाव फिर अपना खातिर गेहूं अउर चना भुजा लिहऽ "

अभी स्कूल से पढ़ कर आ रहे बस्ते को जैसे मैंने फेंका माँ का पहला फ़रमान यही था....
उस दौर में और आज के दौर में बहुत बदलाव आ गये है  खिचड़ी के कई दिनों पहले से ही धान को उबालने का काम शुरू हो जाता था लगभग हर घर की यही कहानी थी। उबालकर भुजिया चावल बनता था जिससे भूजा(लाई) बनता है। अब दौर बदल चुका है अब सब कुछ रेडीमेड उसकी जगह ले लिया है ... उ का है कि लोगो के पास वक़्त बड़ा कम है मानों कथाकथित ....
हर गाँव मे एकाक चूल्हा जरूर होता था जहाँ लोग बड़े चाव से भुजिया चावल को भुजाने जाते थे....
और उस दौर में हम लोग तो ओर ज़्यादा उत्सुक रहते थे कि इसी बहाने हमे और भी काम नही करने पड़ेंगे.... स्कूल से आने के बाद एक ही काम सिर्फ....
कभी कभी तो उसे चक्कर मे स्कूलों में बंक मारने को भी तैयार हो जाते थे ।
ऐसी नोक-झोंक होती रहती थी.... जैसे भुजा भुजने वाली भुजने के बदले में मेहनताना के बदले में गेहूँ, चावल लेती थी उसी तरह हम लोग का भी अपना मेहनताना होता था .... आम भाषा मे कहे तो कमीशन... और ये कमीशन खुलेआम चलता था... जब कभी नही मिलता तो चोरी जैसा कार्य भी करना पड़ता था... कभी कभी पकड़े जाने पर जम के कुटाई भी हो ... ले झाड़ू से लेकर मय पीढ़ा तक से.... उस आफत में भी हम अपनी हार नही मानते थे ....  रो - गा  कर हम अपनी बात को मनवा लेते थे...
अब तो वक़्त ऐसा हो गया है कि रोते है तो दूसरे कारणवश में .... की कोई लाये और लाई और गुण के बने धोन्धे ( हमारे यहाँ यही कहा जाता है ,कई जगह अलग अलग नाम से पुकारा जाता है) मिल जाए खाने को... पर इतना आसान कहा है घर के बनाये गए में जो प्यार और मिठास होता है वो शहर के दुकान पर कहा मिलेगा... इसलिए ही तो कहा जाता है कि प्यार खरीदा नही जा सकता...
मकर संक्रांति (खिचड़ी) की आप सभी को ढेर सारी  शुभकामनाएं
बाबा गोरक्षनाथ आप सभी की मनोकामना पूर्ण करें ....

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