Skip to main content

विश्वास

 ........'"विश्वास".....

.

रिश्ते की वो नींव होती है जिसके संबल पर बड़े से बड़े इमारत मजबूती के साथ खड़े होते है पर जब विश्वास की एक भी ईट दरक जाएं न तब वो सारी इमारतें धराशायी हो जाते है जिन्हें हम विश्वास रूपी नींव पर खड़े किए होते है ।

अगर दुःख मापने के कोई पैमाना होता तो शायद स्वास टूटने की अपेक्षा विश्वास के टूटने पर अधिक होता।

इस विश्वास रूपी इमरात का ढहना कइयों को मटियामेल कर देता है । और न जाने कितनों की ये जाने ले लेता है और लेगा भी।

पिछले कुछ समय पर गौर करे तो इधर आत्महत्याएं की मामलों में वृद्धि हुई है । अगर हम उन सब मामलों में देखे तो इन सबका कारण यही है । सुशांत हो या सिद्धार्थ , या अनुपमा पाठक। अनुपमा के मामलें को देखे तो उन्होंने आत्महत्या करने के कुछ समय पहले सोशल मीडिया पर लाइव आकर ही कहती है कि " यहाँ कोई किसी का मित्र नहीं है कोई भी आप का हितैषी नहीं जो बड़ी - बड़ी बातें करता है समस्या आने पर वही सबसे पहले हाथ खड़ा कर देता है । कोई किसी को समस्याओं को समझता ही नहीं है बल्कि समस्या बताने पर उपहास उड़ाने लगता है ।"

दरअसल समस्या यही है कि कोई अगर मानसिक तनाव से गुजर रहा है तो उसके साथ भेदभाव लोग करने ही लगते है । अपनी समस्या भी वो सिर्फ अपने विश्वासपात्रों को ही बताता जिसपर उसे भरपूर भरोसा होता है कि वो मेरी मदद करेगा पर नहीं कुछ तो उसे हँसी का पात्र बना देते है और कुछ तो उसे अपने से दूर करते है जिससे व्यक्ति के अंदर हीन भावना उदीप्त होने लगती है फिर उसे लगता है कि नहीं अब यहाँ कोई उसकी समस्या की समझने वाला नहीं फिर वो धीरे- धीरे प्रकृति की ओर झुकता जाता है जहाँ वो सिर्फ एकांत ढूंढता है ... उस वक़्त उसे सिर्फ एक ही चीज सूझती है वो है मौत!! लगता है जब कोई उसको समझने वाला नहीं है फिर इस पृथ्वी लोक में क्या काम धीरे- धीरे वो सब मोह बंधनो से विरक्त होने लगता है। और अनन्तः एकांत को ढूंढते-ढूंढ़ते मौत के आगोश में सो जाता है ।

हँसते हुए आदमी को हर कोई पूछता है और रोने वालो को कोई नहीं ये एक सामाजिक सच्चाई है। हम किसी भी आत्महत्या जैसे मामलों में mental prablom को कभी तवज्जों ही नहीं देते है उसको बिल्कुल सिरे से ही खारिज कर देते है ।

ज्यादा सोचिए मत !!!!


 माथे पर के सिकन को दूर कीजिये और खुल कर हँसिये और इस तमाशे का हिस्सा बनिये... और जैसे कि कोई मानसिक समस्या की बात करे अपने भौहों को प्रत्यंचा की तरह तानिये और एक उपहास का बाण छोड़िए.... ।।


और हाँ आजकल ये विनोद कोई है जो गायब है ढूँढिये उसे...सबसे जरूरी वही है ।

.

जय हो 🙏


Comments

  1. Its amazing and a important msg for society to change its perception, well written and expressed

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

कोहली❤️

 . साल था 2008 और तारीख़ थी 18 अगस्त श्रीलंका का दाम्बुला का क्रिकेट मैदान , जब एक 20 साल का नौजवान नीली जर्सी में जो अपने खेल का जौहर दिखा चुका था उसी साल फ़रवरी ।। हालांकि पहले मैच में मात्र 12 रन बनाया पर उस सीरीज में अपना झलक दिखा चुका था...कि क्रिकेट इतिहास में एक बेहतरीन खिलाड़ी मिलने वाला है। भारतीय क्रिकेट को द्रविड़,दादा,लक्ष्मण छोड़ चुके थे, टीम की कमान धोनी के हाथों में थी और एक साथ में थी एक युवा टीम। उस टीम में एक नौजवान था जो भारत को अंडर-19 क्रिकेटवर्ल्ड कप का खिताब दूसरी बार दिलाया था, नाम था 'विराट कोहली'.. वही कोहली जो 2008 में डेब्यू करने के बावजूद 2010 तक भारतीय टीम का परमानेंट मेम्बर नहीं बन पाया।  साल था 2009 ईडन गार्डन कोलकाता का मैदान श्रीलंका की टीम भारत के दौरे पर आयी थीं। तारीख था 24 दिसंबर उस कड़ाके की ठंड में कोहली का बल्ला आग उगल रहा था, वह  कोहली के बल्ले से वनडे क्रिकेट में पहला शतक था । कोहली के पास कुछ था तो वो था रनों की भूख,आक्रमता,उत्तेजना।  साल 2011 के वर्ल्डकप का पहला मैच 19 फरवरी बांग्लादेश के खिलाफ सहवाग जहाँ एक तरफ़ बेहतरीन पारी खेल...

"त्यागपत्र" समीक्षा; - जैनेंद्र कुमार

पहली बार जैनेंद्र कुमार को पढ़ा... त्यागपत्र पढ़ते हुए.. मुझे निर्मला की त्रासदी याद आ गई .. जैसे जैसे मैं इस लघु उपन्यास को पढ़ रहा था... निर्मला की वो कथन याद आ गया कि .. दुःख में जलना तय है .. और दुःख ने निर्मला जैसे कइयो स्त्री को अपने आगोश में लीन कर लिया..। प्रेमचंद जी मे जिस तरह से स्त्री विमर्श की सशक्त गद्य गढ़ी है वह अद्भुत है .. और त्यागपत्र पढ़ते हुई मुझे लगा कि जैनेंद्र कुमार को स्त्री विमर्श पर प्रेमचंद के समकक्ष कहा जा सकता है अगर कोई बाध्यता न हो तो। इन स्त्रियों ने कर्तव्य निर्वाह करते हुए जिस प्रकार नैतिकता, मर्यादा का विश्लेषण किया, जिस तरह सामाजिक संरचना में रचे बसे पाखंड को तार तार किया वह भविष्य की अधिकारसंपन्न स्त्री के लिए रास्ता बनाता है। जैनेंद्र की इन स्त्रियों ने कहीं स्वेच्छा से अपना जीवन नहीं चुना है। अक्सर यही हुआ कि उनके मन की जो बात थी, मन में ही उसका दम घुट गया। लेकिन परिस्थितियों का सामना करने में इनके वजूद की जद्दोजहद प्रकट होती है। नियति की शिकार होने के बाद भी इन स्त्रियों ने अपने लिए रास्ते जरूर बनाए या कम से कम रूढ़ रास्तों से ऐतराज दिखाया। ... निय...

कुफ्र रात

सब कुछ थम सा गया, रात आधी गुजर चुकी है बिस्तर  पर पड़ा हूँ कमरे में अँधेरा है सिर्फ एक चिंगारी जल रही है जिसमे मैं तुम्हारा अक्स देख पा रहा हूँ | झींगुरो की आवाजे तो एकदम सुनाई नहीं दे रहे है पता नहीं क्यों ? और तुम्हारी यादें मुझपर हावी हो रही है | इन सब के क्या मायने है मुझे नहीं मालूम, ये सन्नाटा  मेरे बिस्तर में सिमट रहा है छू रहा है मुझे पर कुछ मालूम नहीं हो रहा है ?? कुछ देर बाद मैं सो जाऊँगा, और मैं बस सोना चाहता हु | खिड़की से आ रही भीनी- भीनी रौशनी से मैं लड़ रहा हूँ | मै जानता हूँ कि  इनसे हार जाऊंगा पर फिर भी क्योकि मैं अब जिद्दी हो गया हूँ , पहले से ज्यादा | मैं जानता  हूँ मुझे मनाना कोई नहीं आएगा इसलिए अब मैं  गलतिया कर रहा हूँ , इन गलतियों में ही अपने आप को ढूंढ  रहा हूँ |  मुझे इन सब से फर्क क्यों नहीं पड़ता ये सब सवाल मै दफ़्न  करके बैठा गया हूँ | मैं वो सब कुछ हो गया हूँ जो मुझे नहीं होना चाहिए था | इन सब बातो से मुझे कोई गुरेज नहीं है, खैर बस एक चीज है की मैं जिन्दा हूँ और जिन्दा होने के लिए इतना ही काफी है |