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Showing posts from 2020

कोहली❤️

 . साल था 2008 और तारीख़ थी 18 अगस्त श्रीलंका का दाम्बुला का क्रिकेट मैदान , जब एक 20 साल का नौजवान नीली जर्सी में जो अपने खेल का जौहर दिखा चुका था उसी साल फ़रवरी ।। हालांकि पहले मैच में मात्र 12 रन बनाया पर उस सीरीज में अपना झलक दिखा चुका था...कि क्रिकेट इतिहास में एक बेहतरीन खिलाड़ी मिलने वाला है। भारतीय क्रिकेट को द्रविड़,दादा,लक्ष्मण छोड़ चुके थे, टीम की कमान धोनी के हाथों में थी और एक साथ में थी एक युवा टीम। उस टीम में एक नौजवान था जो भारत को अंडर-19 क्रिकेटवर्ल्ड कप का खिताब दूसरी बार दिलाया था, नाम था 'विराट कोहली'.. वही कोहली जो 2008 में डेब्यू करने के बावजूद 2010 तक भारतीय टीम का परमानेंट मेम्बर नहीं बन पाया।  साल था 2009 ईडन गार्डन कोलकाता का मैदान श्रीलंका की टीम भारत के दौरे पर आयी थीं। तारीख था 24 दिसंबर उस कड़ाके की ठंड में कोहली का बल्ला आग उगल रहा था, वह  कोहली के बल्ले से वनडे क्रिकेट में पहला शतक था । कोहली के पास कुछ था तो वो था रनों की भूख,आक्रमता,उत्तेजना।  साल 2011 के वर्ल्डकप का पहला मैच 19 फरवरी बांग्लादेश के खिलाफ सहवाग जहाँ एक तरफ़ बेहतरीन पारी खेल...

कुफ्र रात

सब कुछ थम सा गया, रात आधी गुजर चुकी है बिस्तर  पर पड़ा हूँ कमरे में अँधेरा है सिर्फ एक चिंगारी जल रही है जिसमे मैं तुम्हारा अक्स देख पा रहा हूँ | झींगुरो की आवाजे तो एकदम सुनाई नहीं दे रहे है पता नहीं क्यों ? और तुम्हारी यादें मुझपर हावी हो रही है | इन सब के क्या मायने है मुझे नहीं मालूम, ये सन्नाटा  मेरे बिस्तर में सिमट रहा है छू रहा है मुझे पर कुछ मालूम नहीं हो रहा है ?? कुछ देर बाद मैं सो जाऊँगा, और मैं बस सोना चाहता हु | खिड़की से आ रही भीनी- भीनी रौशनी से मैं लड़ रहा हूँ | मै जानता हूँ कि  इनसे हार जाऊंगा पर फिर भी क्योकि मैं अब जिद्दी हो गया हूँ , पहले से ज्यादा | मैं जानता  हूँ मुझे मनाना कोई नहीं आएगा इसलिए अब मैं  गलतिया कर रहा हूँ , इन गलतियों में ही अपने आप को ढूंढ  रहा हूँ |  मुझे इन सब से फर्क क्यों नहीं पड़ता ये सब सवाल मै दफ़्न  करके बैठा गया हूँ | मैं वो सब कुछ हो गया हूँ जो मुझे नहीं होना चाहिए था | इन सब बातो से मुझे कोई गुरेज नहीं है, खैर बस एक चीज है की मैं जिन्दा हूँ और जिन्दा होने के लिए इतना ही काफी है | 

विश्वास

 ........'"विश्वास"..... . रिश्ते की वो नींव होती है जिसके संबल पर बड़े से बड़े इमारत मजबूती के साथ खड़े होते है पर जब विश्वास की एक भी ईट दरक जाएं न तब वो सारी इमारतें धराशायी हो जाते है जिन्हें हम विश्वास रूपी नींव पर खड़े किए होते है । अगर दुःख मापने के कोई पैमाना होता तो शायद स्वास टूटने की अपेक्षा विश्वास के टूटने पर अधिक होता। इस विश्वास रूपी इमरात का ढहना कइयों को मटियामेल कर देता है । और न जाने कितनों की ये जाने ले लेता है और लेगा भी। पिछले कुछ समय पर गौर करे तो इधर आत्महत्याएं की मामलों में वृद्धि हुई है । अगर हम उन सब मामलों में देखे तो इन सबका कारण यही है । सुशांत हो या सिद्धार्थ , या अनुपमा पाठक। अनुपमा के मामलें को देखे तो उन्होंने आत्महत्या करने के कुछ समय पहले सोशल मीडिया पर लाइव आकर ही कहती है कि " यहाँ कोई किसी का मित्र नहीं है कोई भी आप का हितैषी नहीं जो बड़ी - बड़ी बातें करता है समस्या आने पर वही सबसे पहले हाथ खड़ा कर देता है । कोई किसी को समस्याओं को समझता ही नहीं है बल्कि समस्या बताने पर उपहास उड़ाने लगता है ।" दरअसल समस्या यही है कि कोई अगर मानसिक ...

तुम्हारे लिए ❤️❤️ - 2

. "तुम्हारे लिए". . हाँ आज फिर लिख रहा हूं तुम्हारे लिए .. लिखने की कोशिश कई दिनों से कर रहा था पर पता नही क्यूँ नहीं लिख पा रहा था .. आज कोशिश कर रहा हूँ शायद पूरा लिख सकूँ.. जबसे अपने पसंदीदा अभिनेता के इस दुनिया से जाने की खबर सुनी है मैंने तब से पता नही क्यूँ अजीब सी बेचैनी हो रही है  बिल्कुल उस दिन की तरह जब तुम मुझसे अलग हुई थी वो 4- 5 महीनों का वक़्त मेरे लिए 4- 5 सालों के बराबर था.. जब तुम्हे देखा था और तुम पहली नज़र में मेरे दिल मे घर कर गयी थी .. तुम्हारी वो मुस्कान जो मेरे ऊपर बिजली बन गिर पड़ी थी .. तुम हँस रही थी और मैं अपलक तुम्हे देख रहा था... सोचा कि इस डिजिटल जमाने मे तुम्हें मैं चिट्टी लिखूंगा.. पर सोचा हुआ कहा पूरा ही पाता है .. अगर होता तो न मैं आज  इस तरह लिखता और न ही लिख पाता ... याद है तुम्हे पिछली बार जब तुम्हारे लिए लिखा था तो कइयो ने तुम्हारे बारे में पूछा मुझसे की कौन है वो खुशनसीब जिसके लिए तुम लिखते हो.. पर तुम थी कहा तुम तो चली गयी थी दूर कहि दूर... वो वक़्त न मेरे वश में था और न ही तुम। तुम जा चुकी थी और मैं किसी से भी तुम्हारे बारे में कुछ भी नहीं...

सावन

गांव में दो महीने ऐसे होते है जब प्रकृति अपने सुंदरता के पराकाष्ठा पर होती है.. चारो तरफ मनमोहन दृश्य जिनमे गजब की आकर्षक शक्ति होती है इसी दरमियान मनुष्य प्रेम का सृजन भी खूब करता है। शहर में प्रेम के लिए वेलेंटाइन मात्र हफ़्ता जैसा ही बस होता और गांव में यहां तो फ़ाल्गुन और सावन जैसे  दो-दो महीने होते हैं, और इन महीनों में लोकगीतों का बड़ा महत्व होता है । भारतीय लोक परम्परा की ये बड़ी खूबी है कि यहाँ हर मौसम , हर कार्य के लिए अलग-अलग कई पारम्परिक गीत है । ख़ैर अभी सावन चल रहा है सावन के मौसम में कजरी गीतों का महत्व है  कजरी गीतों में वर्षा ऋतु का वर्णन विरह-वर्णन तथा राधा-कृष्ण की लीलाओं का वर्णन अधिकतर मिलता है। कजरी की प्रकृति क्षुद्र है । इसमें श्रृंगार रस की प्रधानता होती है। वक्त के साथ सब बदल गया है अब न कजरी सुनने वाले लोग है और न ही  सुनाने वाले लोग । और एक वक्त था जब बरही के लिए जद्दोजहद करके... एक दो जुन का खाना भौ उठा के नाक सिकोड़ कर कई बार विनती निहोरा करके मंगा लेते थे बार बार मान मनुव्वल करने के बाद बरही (रस्सी) आ जाती थी । फिर क्या न खाने की फ़िक्र न नहाने की प...

"त्यागपत्र" समीक्षा; - जैनेंद्र कुमार

पहली बार जैनेंद्र कुमार को पढ़ा... त्यागपत्र पढ़ते हुए.. मुझे निर्मला की त्रासदी याद आ गई .. जैसे जैसे मैं इस लघु उपन्यास को पढ़ रहा था... निर्मला की वो कथन याद आ गया कि .. दुःख में जलना तय है .. और दुःख ने निर्मला जैसे कइयो स्त्री को अपने आगोश में लीन कर लिया..। प्रेमचंद जी मे जिस तरह से स्त्री विमर्श की सशक्त गद्य गढ़ी है वह अद्भुत है .. और त्यागपत्र पढ़ते हुई मुझे लगा कि जैनेंद्र कुमार को स्त्री विमर्श पर प्रेमचंद के समकक्ष कहा जा सकता है अगर कोई बाध्यता न हो तो। इन स्त्रियों ने कर्तव्य निर्वाह करते हुए जिस प्रकार नैतिकता, मर्यादा का विश्लेषण किया, जिस तरह सामाजिक संरचना में रचे बसे पाखंड को तार तार किया वह भविष्य की अधिकारसंपन्न स्त्री के लिए रास्ता बनाता है। जैनेंद्र की इन स्त्रियों ने कहीं स्वेच्छा से अपना जीवन नहीं चुना है। अक्सर यही हुआ कि उनके मन की जो बात थी, मन में ही उसका दम घुट गया। लेकिन परिस्थितियों का सामना करने में इनके वजूद की जद्दोजहद प्रकट होती है। नियति की शिकार होने के बाद भी इन स्त्रियों ने अपने लिए रास्ते जरूर बनाए या कम से कम रूढ़ रास्तों से ऐतराज दिखाया। ... निय...

एक दिन..

और सुबह नींद खुली घड़ी में आठ बजे रहे थे... पहले मोबाइल की तरफ नजर गई तारीख आज 22 थी दिन रविवार और जनता कर्फ्यू का आह्वान । मोबाइल के नोटिफिकेशन चेक कर रहा था लगभग कईयों के मैसेज पढ़े थे कि आज घर में ही रहे घर से बाहर बिल्कुल ही ना निकले मैंने मोबाइल को दूर किया बिस्तर से उठकर बाहर बालकनी की तरफ निकल आया सामने गलियां एकदम सुनी थी बिल्कुल खामोश जो लखनऊ की गलियों की अदावत थी ही नहीं ...चिड़ियों की चहचहाने की आवाज कानों तक साफ़ आज पहुंच रही थी गाड़ियों की आवाजाही थम सी गई थी। गली में किसी चीज का आना नहीं हुआ कोई भी व्यक्ति बाहर नहीं निकला। एक अकेली पत्ती गली के छोर पर खड़े अमरूद के वृक्ष से अलग हुई और उस खामोशी ठहराव में गिर गई । जैसे एक सांकेतिक गिरना था संकेत था वस्तुओं में निहित एक शक्ति का जिसे आपने अनदेखा कर दिया एक छोर से दूसरे छोर तक सिर्फ दिख रही थी तो सिर्फ खामोशी और सुनाई पड़ रही थी तो हवा की सरसराहट और चिड़ियों की चहचहाहट। ______________ यक़ीन मानिए कभी कभी ऐसा कर्फ्यू भी जरूरी है .. आज शहर में रहते हुए पहली बार अनुभूति हुई कि शहर में भी लोग इस तरह रहते है ... जहाँ दिन ...

तुम्हारे लिए ❤️💕

तुम्हारे लिए❤️ टेबल लैंप जल रहा है कमरे में पर पता नहीं मुझे क्यों अँधेरा सा महसूस हो रहा हैं... रात एकदम मौन है कोई हलचल नहीं कोई उथलपुथल नहीं, जो भी कुछ भी चल रहा है वो सिर्फ मेरे दिल-ओ-दिमाग में चल रहा हैं.. आँखे झेंप रही है और सिर्फ तुम्हारे ही ख़यालात आ रहे है... उस दिन की तरह सादे लिबाज़ में तुम्हारा बदन मेरे बंद आँखों के सामने दिख रहा है ... मुझे पता नही तुम मेरा लिखा हुआ कभी पढ़ती हो या नहीं पर फिर भी मैं तुम्हारे ही ख्याल में डूबकर लिख रहा हूँ.. कहते है न कि उम्मीद पर दुनिया कायम है  बस इसी मूलमंत्र को गांठ बानकर लिख रहा हूँ, कि तुम जरूर पढ़ रही होंगी... सोचता हूँ कि काश ! उस दिन तुम मुझे न दिखी होती तो क्या होता.. क्या मैं इस तरीके से कभी लिख पाता...... मुझे पता नहीं..... जानती हो ! अक्सर मुझसे लोग सवालात करते है कि तुम किसके लिए लिखते हो... उस वक्त मैं एकदम मौन हो जाता हूँ जिस तरह ये रात मौन है.... काश उस दिन तुम्हारे वो मौन मुस्कान मेरे दिल मे घाव न किये होते .. वो सादगी उस दिन मुझे तुम्हारी तरफ आकर्षित नहीं की होती.. तो क्या होता ... क्या तब भी मुझे ये रात मौन से ही दि...

कितना झूठ!!

कितना झूठ बोला जाता है हमसें.... जब बचपन में होते है तब कहा जाता है पढ़ लो सब पढ़ाई बारहवीं तक ही है उसके बाद फिर मौज ही है...जब बारहवीं तक पढ़ लेते है तब फिर एक बार हमसे झूठ बोला जाता है .. अब ग्रेजुएशन ठीक से कर लों.. नात- रिश्तेदार सब छोड़ो , ज्यादा सामाजिक भी मत बनो बस अपने काम से कम रखों और सिर्फ पढ़ाई करों। फिर उस झूठ को हम बड़े आसानी से मान लेते है.... अधिकतर ग्रेजुएशन करने के लिए लड़को को शहर की तरफ रुख करना पड़ता है ,,, घर जाने के बहाने ढूढंने पड़ते है कि कैसे भी घर जाएं... पर फ़िर वहाँ भी एक झूठ बोला जाता है कि बाबू ऐसा है कि ई जो तुम्हारा घर परिवार का मोह-माया है इसे छोड़ो बस अपने कैरियर पर अब ध्यान केंद्रित करों...... रफ़्ता-रफ़्ता हम लोग भी अब उसी तरह के आदी हो जाते है ... मोह-माया को त   एकदमे त्याग देते है ...धीरे-धीरे करेजा को पत्थर करते हुई सब मोह भंग कर लेते हैं..... इतना की अब लोगो को कहना पड़ता है कि 'अब हमारा याद तुम्हे नही आता,जब हम फोन करेंगे तभी तुमसे बात होगी तुम फोन नही कर सकतें।'  अब हम उन्हें कैसे बताए कि आपने ही तो कहा की सब मोह-माया को भंग कर दो......

खिचड़ी और बचपन

"ए बाबू जाऽ त तनि हईं चाउर भुजा लावऽ" "ए माईं पहिले हमके गेहूं, अउर चना अगल से देबु भुजावे के तबे जाइबऽ हम" "भूजवा भूजइबऽ नाहीं त धोंधा कइसे खइबऽ, देखऽ खिचड़ी आ गइलऽ बा..." "नाहीं पहिले हमके अलगे से भुजावे के चना अउर गेहूं देबू तबे जाइब" "ठीक बा, पहिले चउरा भुजा लाव फिर अपना खातिर गेहूं अउर चना भुजा लिहऽ " अभी स्कूल से पढ़ कर आ रहे बस्ते को जैसे मैंने फेंका माँ का पहला फ़रमान यही था.... उस दौर में और आज के दौर में बहुत बदलाव आ गये है  खिचड़ी के कई दिनों पहले से ही धान को उबालने का काम शुरू हो जाता था लगभग हर घर की यही कहानी थी। उबालकर भुजिया चावल बनता था जिससे भूजा(लाई) बनता है। अब दौर बदल चुका है अब सब कुछ रेडीमेड उसकी जगह ले लिया है ... उ का है कि लोगो के पास वक़्त बड़ा कम है मानों कथाकथित .... हर गाँव मे एकाक चूल्हा जरूर होता था जहाँ लोग बड़े चाव से भुजिया चावल को भुजाने जाते थे.... और उस दौर में हम लोग तो ओर ज़्यादा उत्सुक रहते थे कि इसी बहाने हमे और भी काम नही करने पड़ेंगे.... स्कूल से आने के बाद एक ही काम सिर्फ.... कभी कभी तो उ...