Skip to main content

Posts

Showing posts from 2019

गाँव

" अक्सर गांव पर वही लोग लिखते रहते है, कि गाँव बदल गया है जो पूर्णतः छोड़ चुके होते जिनके लिए गांव सिर्फ छुट्टी काटने और मौज करने के लिए ही सीमित रह गया और कहते है कि गांव अब बदल गया है " एक गांव में दो दोस्त थे, नाम था चेतन और आनंद, हर शाम उनकी मस्ती भरी रहती थी ठंडी गर्मी जाड़े की ज़रा भी उनको फिक्र नही होती थी,,,गर्मी के दुपहरी में कभी इस आम के पेड़ पर कभी उस आम के पेड़ पर चढ़कर उसपर लगे टिकोरे को झाड़ देते थे , आम के साथ साथ गालियां भी उन्हें नमक स्वरूप खानी पड़ती थी, सिर्फ गालियां ही सीमित नही थी बाकायदा चप्पल और डंडे की भी जबरदस्त मार पड़ती थी,,,, उन दोनों का बचपन बड़े मस्ती और शरारत के साथ बीता,,, पढ़ाई भी साथ में करते रहे उन मस्ती भरी जिंदगी के बीच कब उन दोनों ने इंटर पूरा कर लिया उन्हें पता भी न चला ,,, अब बारी थी शहर में जाकर पढ़ने की सो दोनों शहर की ओर कूच कर लिए, एक जज्बा था कुछ कर गुजरने का उन दोनों के अंदर, चूंकि होता क्या है कि आदमी दो ही तरह से अपने आप को स्थापित कर पाता है एक होता है क़िस्मत, पर उन दोनों के पास वो था नही अगर होता तो गरीब के यहाँ क्यो पैदा होते। द...

"ख़्वाब" (लप्रेक)

जिंदगी में तमाम ख़्वाब होते है, उनमें से तुम्हारे साथ होना एक है। तुम मेरी कविताओं की अधूरी अल्फाज़ हो तुम्हारे वगैर मेरी कोई कविता मुक़म्मल नही होतीं। जब भी लिखने की कोशिश करता हूं तुम ही ख्यालों में आ जाती हो और तुम्हारे इसी तरह आने से मेरी कविता मुक़म्मल हो जाती है। जब भी मैं नदी के तट पर बैठता हुँ, धारा प्रवाह को एक टक देखते हुए तुम्हारे ही बारे सोचता हूँ... अब देखो न हम सिर्फ ऊपरी प्रवाह की गति को देख पाते है पर जो उसके भीतर हलचल होती है न ही हम उसे देख पाते है और न ही उसके बारे में सोचने की कोशिश करते है। सूर्य की किरणें जैसे जैसे मंद होती है ऊपरी सतह की गति वैसे-वैसे मंद होती जाती है पर नीचे की सतह पर,,,, उसपर इसका कोई प्रभाव नही पड़ता वो अपनी गति से बहती जाती है... तुम्हारे साथ भी मैं कुछ ऐसे ही बहना चाहता हूँ... किसी के प्रभाव से हमारे बहने की गति को प्रभावित ना करें।

"जितिया"

"ये भईया उठऽ " "उऽ" "उठऽ माई बोलावत बा, परसादी खाए के" "चलऽ आवत हईं" "सात बज गइल हव माई अबहि ले पानी नाहीं पियले हव, चलऽ जब तू खईबऽ तब न माई पानी पी" हम उठ कर चल दिए जैसे माँ के पास पहुँचे आँख मलते हुए... वइसे माँ ने कहा "बाबू आ गइलऽ आव परसादी खा ल" "माई ब्रश कई के आवत हईं" "बाबू परसादी खइले मे बरश कइले हव या न इ ना देखल जाला" तब तक अचानक नींद खुली मोबाइल में देखा 7:30 हो रहा था,,,,, तब माँ को फ़ोन लगाया.. माँ से बस तो टूक ही बात हो पाई "हैलो" "माई नमस्ते" "खुश रह बेटा तोहार सब मनोकामना पूरा होखे" "का होत बा" "बस अब पानी पियें जात हईं, देख तवले तोहार फोन आईये गइल" "ठीक बा माई पानी पी ल फिर हम बाद में बात करत हईं" बस इतना बात करके फोन काट दिया.. फिर मन मे वही उठापठक चालू आखिर हम शहर आने को क्यो मजबूर होते है ? गाँव जो हमे संस्कार सिखाता है वही शहर उस संस्कार से हमे कहि दूर ले जाता है एक तरह से हमारे संस्कार को नष्ट भी कर रहा है. ...

"कोहबर की शर्त"

'कोहबर' विवाह के रस्म अदायगी में एक पड़ाव जहाँ शादी के पश्चात पहली बार वर वधु मिलते है साथ में जवार की लड़कियां और महिलायें रहती, पुरुष में वर और शाहबाले के अलावा और कोई नही होता है । हँसी ठिठोली और कई तरह के खेल खेलाये जाते है और जो जीतता है वह हारने वाले से कुछ न कुछ शर्त करता है । उपन्यास "कोहबर की शर्त" आंचलिक भाषा पर आधारित एक उपन्यास है जिसके मुख्य पात्र चंदन और गुंजा के प्रेम और बलिदान पर आधारित है। कहानी इतनी संजीदगी से गढ़ी गई है कि आप की आखों को भी नम कर देती है, जैसे-जैसे आप उपन्यास को पढ़ते जाते है सामने वो छवि , आकृति बनती जाती है यह आकृति एक स्वप्न है। विवाह की रात कोहबर के रस्म में चलने वाली नोक-झोंक जो कुछ इस तरह है.... "बहिरे हो क्या,पहुना?या अपनी बहन को याद आ रही है?" "हम क्यो अपनी बहन को याद करे! हमारे तो कोई बहन भी नही है। हम तो दूसरे की बहन लेने आये है!" बारह साल का चंदन तपाक से जवाब देता है । कोहबर की वो नोक-झोंक दोनों को एक ऐसे रास्ते पर लाकर खड़ा कर देती है जो जाकर उस सागर में गिरता जिसे लोग प्रेम, मोहब्बत, इश्क और चाहत कह...

शादियों में गाने

शादियों का मौसम चल रहा है, उतनी ही तेजी से छौंका के साथ गर्मी भी लगा रहा है ...... जून के महीने में गर्मी अपने चरम पर होती है, शादी के इस मौसम में बारिसों का संसय बना रहता है , शादी करने वाले कि जी हलकान में रहती है कि कब बारिस हो जाए और कब उनके ख्याबो की उस सजावट पर पानी  फेर दे..... ...  .... .. शादियों के मौसम में पहले हिंदी के रोमांटिक युग के गानों का बोलबाला होता था ,,..... "वादिये इश्क़ से आया है मेरा शहजादा" जैसे गानों से लेकर "थम के बरस जरा थम के बरस मुझे महबूब के पास जाना है " मेघ देव भी रुख़ जाते थे और बारिस की बूंदे जरूर पड़ जाती थी, खासकर के जून के महीनों में.... अब धीरे-धीरे ट्रेंड बदला  हिंदी गानों के जगह आधुनिक भोजपुरी चरितार्थ के गीत बजने लगे है .... वह गाने जो नाच के मंच को सुशोभित करते थे अब वह शादिये के मंडप तक गूंजते है...... "पियवा से पहिले हमार रहलु" से लेकर "देवर करी घात ए राजा" तक... यही तक सीमित नही रहता है "रात दिया बुता के पिया क्या-क्या किया" जैसे गानों से प्रश्न भी पूछ लिया जाता है .....इन सब से मेघ...

गांव के लड़के…

हम गांव देहात के लड़के, गर्मी के दुपहरी में एसी और कूलर नही ढूढ़ते है,बस जहाँ ही पेड़ की छांव मिल जाये वही खाट डालकर लेट जाते है, मठलाते है और कान में ठेठी डाल कर शहर से बिल्कुल अलग अंग्रेजी गानों से कहि दूर हिंदी और भोजपुरी गानों को मदमस्त वाला होके उसी खाट पर हिलकोरे लेते रहते है , ये मात्र एक गांव की छवि नही बल्कि कई गांवों में अमूमन ऐसी छवि देखने को मिल जाएगी, जहाँ हम जैसे लौंडे रहते है, शहरो में भौकाल मारने के लिये जस्टिन बीबर, अर्जित,मलिक का गाना सुन ले मगर घर की खटिया पे सिर्फ मनोज तिवारी, निरहुआ ,पवन और खेसारी का ही गाना याद आता है, एमा,कैट्रीना तो बस हमे मूवी में ही अच्छी लगती है असल जिंदगी में हमे तलाश है तो काजल राघवानी और आम्रपाली दुबे जैसी......लेकिन अपना छोटा सा गांव अपनी आँखों में ले कर चलता हूं सड़क के किनारे हमे खड़े होकर जूस पीने से लेकर लिट्टी चोखा खाने तक मुझे कोई हिचकिचाहट नही होती क्योकि भईया हम है लोअर मिडिल क्लास फैमिली और संकोच हमारे होमोग्लोबिन में तैरता है जैसे ........ #गाँव #घर #देहाती_लड़के

विश्वविद्यालय

आज विश्वविद्यालय के सत्र का आखिरी दिन था , और हम लोगो के बीए प्रथम वर्ष का, सो जो मन मे हर्षोल्लास रहता है उसकी एक अलग सीमा होती, घर गांव जाने की उन एक साल के बेहतरीन यादों को समेटने की जब गांव से कोई लड़का एक स्कूल, कालेजों से एक बड़े शहर के विश्वविद्यालयों में प्रवेश करता है जो महज सौ हज़ार की भीड़ का सामना किया होता है और अचानक हजारों हजार की भीड़ को देखता है तो सिर्फ देखते रह जाता है आँखे फाड़ के एक टकटकी निगाह से ढूढ़ता रहता है शायद कोई अपना मिल जाये। विश्वविद्यालय में आने के पश्चात कुछ हो या न हो एक काम जरूर होता है कि लड़का पहिले अपना क्षेत्रवाद साधता है भले ही उसे युपी के सारे जिलों का नाम पता ह्यो या न हो,,,,, और साधे ही न क्यो चूंकि अपनी भाषा और संस्कृति से दूसरे भाषा और संस्कृति में एडजस्ट नही कर पाता है । यही हाल अपना भी रहा ....   जारी✍️✍️

मेरी माँ ( मातृ दिवस )

 अनपढ़ है पर, मेरे चेहरे को खूब पढ़ती है, वह मां ही है जो मेरे हर दुख में सिसकती है मैं खाना खाया या नहीं हमेशा पूछती है चाहे उसके पास रहूं या उससे कोसों दूर पहले जब मैं छोटा था, अपने सारे कामो को छोड़ कर मेरे लिए सुबह जल्दी खाना पकाती थी कहीं देर ना हो मेरे स्कूल जाने की। अब भले ही बड़ा हो गया हूं घर से कोसों दूर हो गया हूं पर जब भी घर जाता हूं माँ पहले मुझे खाना खिलाती है फिर अपने खाती है चाहे देर रात से कहीं से घूम कर आउँ या देर दोपहर में। भले ही अनपढ़ है पर मेरे चेहरे को पढ़ती है वह मां ही है जो मेरे हर दुख में सिसकती है मुकेश आनंद 12/04/2019

हॉनर किलिंग

"इश्क पर जोर नहीं है वो आतिश गालिब  कि लगाए न लगे और बुझाए न बुझे"  पता नहीं कौन सी इज्जत और सम्मान के लिए लोग कत्लेआम करते हैं जिसे ऑनर किलिंग कहते हैं।  चाहे वह एक मजहब के हो या अलग-अलग मजहब के पर इन सब मामलों में हमारा समाज आज भी पीछे हम हर तरफ से तो विकसित हुए हैं पर ये गंदी सोच लोगों के जेहन से नहीं निकल पाए हम लाख गुना पढ़-लिख और एक आदर्श समाज की कल्पना करें पर जो सामाजिक रूढ़ियां हैं जिससे  हम ऐसे किसी भी आदर्श  समाज का निर्माण नहीं कर सकते । जो भी समाज सुधारक हैं सब ने अंतर्जातीय विवाह की वकालत की पर वह कभी समाज ने स्वीकार नहीं किया  जब कन्या भ्रूण हत्या और बाल यौन शोषण का मामला आता है तब वह इज्जत का ख्याल क्यों नहीं आता इज्जत हमें तभी याद आती है जब लड़की अपने मन से शादी करती है.........

हरियाली

बसंत की बहार जा चुकी है चैत्र का महीना आ गया पेड़ों से पुराने पत्ते गिर गए हैं, सेमल के फूल अब अपने अंतिम पड़ाव में है चैत का महीना आते ही शरीर में चुनचुनाहट होने लगती है हमारे विश्वविद्यालय के कुछ साथियों को भी यह मौसम आते ही उनके अंदर की चुनचुनाहट को जगा देती है खासकर जब राष्ट्र गौरव और पर्यावरण अध्ययन के बारे में भी पढ़ना हो तो यह तो इसकी चिंता जायज होती है। एक ,पर्यावरणीय छात्र होने के नाते हरियाली की चिंता उनके मन में सताने लगती है बेचैन कर देती है विश्वविद्यालय के एक छोर से दूसरे छोर की ओर चक्कर लगाते नजर आते हैं हरियाली गायब होने के कारण कहीं नई जगह नहीं मिलती मिलती बैठने के लिए ऐसे कई ठिकानों को नष्ट कर दिया जाता है चूंकि  मुख्य कैंपस में हम बीए वालो के अलावा कोई और इस समस्या पर चिंता नहीं सकता है , बीकॉम और बीएससी वाले सिर्फ एक बिल्डिंग से दूसरे बिल्डिंग तक ही  आते जाते हैं और इन्हें कोई मतलब नहीं होता बचे-खुचे ऑनर्स वाले  उनकी तादाद ही कम है वह सिर्फ अपने विषय में परिपूर्ण होते रहते हैं इन्हें भी इस समस्या से कोई लेना देना नहीं पर हम बीए वालों हमारी संख्या भार...
चुनाव अपने अंतिम पड़ाव की तरफ है चार चरणों के मतदान के बाद भी कई सारे लोकहित मुद्दे गायब से हैं चुनाव आते हैं तो ये अपेक्षा रहती है कि लगभग सभी सामाजिक आर्थिक समस्याओं पर पुरजोर बहस होगी, समस्याओं से निपटने के लिए उस पर चर्चा होगी पर मौजूदा आम चुनाव में यह सब मुद्दे कहीं दूर नजर आते हैं मानो ऐसा लगता है जैसे कोई सामाजिक और आर्थिक समस्या रह ही नहीं गई है, चहे वह सत्ताधारी पार्टी हो या विपक्ष इन सब मुद्दों पर कभी बात ही नहीं करते लंबे चौड़े भाषणों में आम समस्याओं के मुद्दे कहीं विलुप्त नजर आते हैं, बढ़ती महंगाई, शिक्षा ,स्वास्थ्य ,रोजगार, कानून इन सब के अलावा आजकल एक सबसे महत्वपूर्ण समस्या है बढ़ते "प्रदूषण" और "जनसंख्या विस्फोट", जनसंख्या विस्फोट इसलिए क्योंकि यहां की जनसंख्या में वृद्धि नहीं बल्कि तीव्र गति से वृद्धि हो रही है। यह समस्या सिर्फ भारत की ही नहीं बल्कि लगभग सारे देशों की है, विडंबना देखिए विश्व के सबसे अधिक प्रदूषित शहरो में भारत के ही हैं टॉप 20 में से 13 शहर और तो और उस लिस्ट के पहले 7 शहर सिर्फ हमारे देश के ही हैं   यह समस्या सिर्फ वायु प्...